मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

हद हो गई उनकी मुसिफी

अब तो वो भी हमको

बेगानों से लगते है

सूरत ऐसी है के

जेसी जाने पहचाने से लगते है

दोस्त बने है

कुछ ऐसे के दुश्मन पुराने लगते है

गम है उनको मेरी ही वो हमारी

ख़ुशी पर यु आंसू बहाने लगते है

बढ़ है कद शायद

जो निचा दिखाने लगते है

रोज उलझती है यु मुस्किल हर

लम्हा समाधानों से लगते है

रिश्तो को भुनाते है

ऐसे जो मुंसिफ कोई माने लगते है

हद हो गई उनकी मुसिफी

अब तो वो भी हमको

बेगानों से लगते है

सूरत ऐसी है के

जेसी जाने पहचाने से लगते है

दोस्त बने है

कुछ ऐसे के दुश्मन पुराने लगते है

गम है उनको मेरी ही वो हमारी

ख़ुशी पर यु आंसू बहाने लगते है

बढ़ है कद शायद

जो निचा दिखाने लगते है

रोज उलझती है यु मुस्किल हर

लम्हा समाधानों से लगते है

रिश्तो को भुनाते है

ऐसे जो मुंसिफ कोई माने लगते है

सोमवार, 20 अप्रैल 2009

हम वाकई में स्लम डॉग है क्या



यह एक प्रश्न है जो हमारे मन में पिछले कई दिनों से उठा रहा है जबसे मैंने स्लम डॉग मिलेनियर फिल्म को देखा है .फिल्म में वैसे दूसरो को लाख बुराई दिखाई देती हो मुझे फिर भी इसमें एक बहुत बड़ी अच्छाई दिखती है और वह ये है की यह फिल्म हमको इस भारतीय होने का भान करते है यह हमको अहसाह करता है की हम क्या थे और क्या हो गए है.
स्लम डॉग मिलेनियर फिल्म को भले ही विदेशों मे ओस्कर मिल गया हो जिसकी हमारे देश को जनम जन्म से प्यास थी जिसके बिना हमारी योग्यता पर ही प्रश्न चिह्न लग रहा था. खैर जब ऑस्कर के बाद फिल्म मे कम करने वाले बच्चे वापस लौटे तो एक के बाप ने मीडिया से बात न करने पर अपने मिलेनियर के स्टार वर्जन बालक की धुनाई कर दी . इस सब नाटक के पीछे उसके बाप का छपास का रोग था जिसके सहारे वह नाम कमाना चाहता था.
यह तो मालूली सी बात है उससे भी बड़ी चौकाने वाली बात तो पिछले दिनों पता चली जो एक विदेशी अख़बार लाया कि जब उस पत्र के एक संवाददाता ने दुबई का एक रईस बनाकर बात किया तो हमारे देख का एक पिता अपनी बेटी को पहले गोद और बाद मे बेचने को भी तैयार हो गया. हालाँकि मे इस स्टिंग ओपरेशन के विषय में कुछ नहीं कहूँगा मगर हमारी आंखें खोलने के लिए यह सच ही काफी है
हमारे देश में गोद लेना एक सांस्कृतिक परम्परा है. जिसका ममता और भावनाओ से बेहद गहरा ताल्लुक है. गोद लेना एक ऐसी परम्परा है जिसमे कोई भी ऐसा परिवार जो बाल सुख से वंचित होता है वह सामाजिक रीती रिवाजों के साथ मे अपने परिवार के अन्य बंधुओं से उनका बालक ग्रहण करता है और उसके सहारे अपने सरे संस्कारों को पूर्ण करता है
लेकिन मध्यकाल के आते आते हमारे देश मे दत्तक पुत्र के परम्परा का स्वरूप इतना ज्यादा कलुषित हो गया था कि इसके कारन कई युद्ध तक लादे गए और कई परिवारों का समूल नाश हो गया. और अज के दौर मे तो इसके और भी बुरे हाल हो गए. गोद देने के प्रथा का अपना पौराणिक और भावनात्मक महत्व है. गोद देने वाले माता पिता उन लोगों को भी ममत्व का सुख प्रदान करते है के अपने संतान के सुख को उनके साथ बाँटते है यह कार्य इतना आसन नहीं है इसके लिए काफी मजबूत ह्रदय होने के जरूरत है. लेकिन आज इस दौर मे जब सभी रिश्ते बजारू होने के कगार पर आ गए है ऐसे मे किसी से बिना लालच के गोद देने के अपेक्षा करना काफी बेमानी सा लगता है.
पिछले दिनों स्लम डॉग के रुबीना का बचपन मे रोल करने वाली लड़की को बेचने वाले पिता ने जो उदाहरण पेश किया है वह किसी भी मायने मे इंसानियत नहीं माना जा सकता है काम से काम यह यह हमारा देश ही है जहाँ एक और हम मानवता का ढोल पिटते रहते है और दूसरी तरह ऐसा काम करते है जो कुत्तों से भी बदतर है.
क्या अपने कभी सुना है कि किसी कुत्ते ने अपने बच्चे को बेच दिया जो उनको बेचने का काम भी हम ही करते थे आज कुछ और नहीं मिला तो हम अपने बच्चों को ही बेचने लग गए है यह तो निर्ममता के भी पराकाष्ठा है.
आपको लगे या नहीं लगे काम से काम मुझे अब लगने लगा है कि हम वाकई में स्लम डॉग है