शनिवार, 14 जून 2008

बस एक बार आजमाना चाहता हूँ।


मुझे हो गया अपने होने का,

अहसास मैं बस,

यह जान कर ही खुश हूँ।

और मेरा न होने मतलब भी समझता हूँ

फ़िर भी बस एक बार देखना चाहता हूँ । ।

मेरे होने से क्या फर्क था ।

और मेरे ना होने से क्या असर होता है,

बस एक बार अपने को आजमाना चाहता हूँ । ।

ख़ुद की तसल्ली के साथ,

औरों को भी समझाना चाहता हूँ ।

कि मैं हूँ तो क्यो हूँ ,

और नहीं तो भी क्यो नहीं ?

इस बहाने ही सही ये बताना चाहता हूँ ।

इस बार अपने साथ

उनको भी आजमाना चाहता हूँ ।।

शनिवार, 7 जून 2008

महाराणा प्रताप बच्चों के किस काम आयेंगे?


आज बच्चों से हमारे महापुरुषों को ऐसे दूर रखा जा रहा है की उनसे उनको कोई काम पड़ने वाला ही नहीं हैया फ़िर उनके विचारों का कोई महत्व ही नहीं है।
परसों की बात है, मेरी एक दोस्त राजस्थान पत्रिका के भोपाल संसकरण मैं काम करती है, जिसका ऑफिस चेतक ब्रिज के पास है। उसके घर पर छोटे भाई ने पता पूछा तो उसने बताया कि चेतक ब्रिज तो उसके लिए ये मजाक का विषय बन गया।

इसका कारण उसके सुनने में हुयी त्रुटी रही हो या फ़िर हमारी इस बदली हुयी शिक्षा का नतीजा उसका जवाब था क्या आपका ऑफिस तो चेचक ब्रिज के पास है यानि आपके ऑफिस में चिकन पोक्स भी रहता है?
उस बच्चे को शायद महाराणा प्रताप के बरे में पता होगा या नहीं मगर उसे ये बात तो पक्की है कि उसे चेतक के बरे में दयां नहीं था ये है ना हमारे लिए शर्म की बात यदि नहीं तो इससे बुरे और किस हालत की उम्मीद कर रहे है आप ?
मेरा अपनी दोस्त से पहला सवाल यहीं था कि क्या वह कान्वेंट स्कूल में पढ़ता है तो उसका उत्तर सकारात्मक था आज दशा यह है कि हमारे बच्चे चिकन पोक्स में समझते है उर उन्हें महाराणा प्रताप के घोडे का नाम मालूम नहीं है या फ़िर उनके इन्ट्रेस्ट में शामिल नहीं है ?
हम तो सरकारी स्कूलों में पढे है जहाँ सर छिपाने के लिए छत नहीं होती थी मगर वहां से सर उठाने का सबक जर्रोर मिला था वहां खाने के लिए बड़ा पैकेट नहीं होता था मगर भरपेट संस्कार जरूर मिले थे।
हाँ मैं ये स्वीकारता हूँ कि हमे पर्सनालिटी के जैसा कुछ बताया नहीं गया था फ़िर भी देशभक्ति की प्रेरणा उसी विद्या के मन्दिर में मिली है मगर आज क्या हो रहा है ..............
उससे आप भी वाकिफ है?
आज किताबों में हेरी पोर्टर को महत्व दिया जाता है पंचतंत्र को नहीं, मिक्की माउस के बरे में बताया जाता है महाराणा प्रताप के बारे में नहीं, फ़िर कैसे पता चलेगा? सब दोष हमारा ही है हमने अपनी शिक्षा की गुणवत्ता के नाम पर ऐसी दुकाने खोल डाली है जहाँ न ही तो ज्ञान है और ना ही संस्कार और ना ही अपनी परम्परा कि कोई सार्थक शिक्षा।
इसके साथ अब एक और दुख वाली बात ये है कि हमारे सरकारी स्कूलों को भी अब भारतीय आदर्शों को पढ़ने में शर्म आने लगी है ।
अगर बात राजस्थान की करें तो यहाँ आज से पन्द्रह बीस साल पहले विद्यालयों में कई देशभक्ति की कविताएं कोर्स का हिस्सा थीं जो राजस्थान के महान योद्धों के जीवन से छात्रों को परिचय कराती थी मगर पता नहीं इस वैचारिक बदलाव की अंधी ने क्या जादू सा कर दिया कि हमारे निति निर्धारकों को उन कविताओ को पढ़ना अच्छा नहीं लगा . कई साल पहले राजस्थान बोर्ड की कक्षा सात में राजस्थान के कवि कन्हेया लाल सेठिया जी की कविता हुआ करती थी 'पिथल और पाथल' जिसे उन्होंने महाराणा प्रताप के संघर्ष के दिनों को कवि की विचारों में पिरो कर पेश किया था जिसे बाद में महज इस आधार पर हटा दिया गया कि यह इतिहास के विरुद्ध है हालांकि आज भी वह कविता जनजन की कंठाहार है मगर ये भी सत्य है कि अज ये कविता किताबों से लगाकर ई ज्ञान का खजाना कहे जाने वाले इंटरनेट पर भी ये कविता मुझे तो नहीं मिली है. पता नहीं इसका इतना बड़ा अनादर क्यों हो गया?
कक्षा पांच की किताब में पन्नाधाय का एक पाठ हुआ करता था मगर अब वह भी पता नहीं कहा गायब है? प्रायमरी कक्षाओं से महाराणा के पहरुए के नाम से गदुलिये लुहार का पाठ था शायद वह भी अभी नहीं होगा. कुछ समय पहले तक ग्यारहवीं कक्षा में महीयसी मीरां शीर्षक का खंड काव्य था मेरे से तीन साल छोटे भाई ने उस क्लास में आने पर बताया कि वह तो बदला गया है अब उसके स्थान पर यशोधरा पढाया जाता है, मेरी यशोधरा से कोई मतभेद नहीं है मगर इस राष्ट्रीयकरण की दौड़ में हम अपने बच्चों को महाराणा प्रताप,चेटक, चित्तोड़गढ़, मीरां ,पन्नाधाय, हल्दीघाटी से लगाकर दीवेर से दूर करते जा रहे है ................. ।

कन्हैया लाल सेठिया की 'पिथल और पाथल' कहाँ ?

इस भागदौड़ की जिंदगी में हमें शायद अपने बारे में ज्यादा सोचने का मौका नहीं मिलता है मगर कई बार हम बहूत कुछ काम का भी खो देते है बदलाव की बयार में हम कई काम की बातें और लोगों को भुला चुके है जिनमे एक नाम कन्हैया लाल सेठिया जी का भी है जिनकी कृति जो कभी जन -जन कंठहार रही वह अब खोजे नहीं मिल रही है शायद इसका कारण ये भी माना जा सकता है।
महाराणा प्रताप को लेकर जिन लोगों ने भी जो कुछ लिखा है वह उनके जीवन को प्रस्तुत करने के लिए सक्षम है उनके बरे मैं ज्यादा कभी जानने की इच्छा ही नहीं हुयी मगर कोई है जो हमेशा मेरे लिए आकर्षण का केन्द्र रहा है मेरी जिज्ञासा सबसे ज्यादा किसी शख्स के प्रति है वह है राजस्थानी भाषा के जाने-माने कवि कन्हेयालाल सेठिया। मैंने राजस्थानी को भाषा इसलिए कहा है की देश के क्षेत्रफल के आधार पर सबसे बड़े राज्य मैं बोली जाने वाली बोली है।
जो कई सालों से जब हिन्दी का विकास नहीं हुआ था उससे पहले से ही आम लोगों के द्वारा प्रयोग की जाती रही थी स्वतंन्त्रता संग्राम में भी ये नहीं कहा जा सकता है कि राजस्थान के विभिन्न पत्रों से लेखन के माध्यम के द्वारा हुए प्रयास हुए वे हिन्दी में थे वे भी इसी भाषा में थे उसके पहले राजामहाराजाओं ने इस साहित्य को काफी समृद्ध किया है जाने-अनजाने में ही सही अपने बखान के लिए ही उन्होंने जैसे चारणों और भाटों से लेखन करवाया।
और इससे इस भाषा का आदर समृद्ध होता गया.
इस श्री भंडार का किस्सा वैसा ही थे जैसा सरस्वती के धन का होता है कहते है
सरस्वती के धन कि है बड़ी अपरं बात,

ज्यों खर्चे त्यों बढे ज्यों बचने घटी जाय.
राजस्थानी को समृद्ध करने में कई कवियों का बड़ा योगदान रहा. उनका लेखन स्वतंत्रता के बाद भी जारी रखा और जो आज भी जारी है.
पिछले दिनों राजस्थान में राजस्थानी को राज्य भाषा का दर्जा देने की मांग जोरों पर थी राजनीती इसी पर फोकस हो गई, हर पार्टी इसका फायदा लेने को आतुर थी और इसके चलते पता नहीं क्या-क्या होने लगा।
भाजपा के जसवंत सिंह ने कर्नल जेम्स टाड के इतिहास को नकारते हुए नया इतिहास लिखने की घोषणा की थीं। इसी तरह से राजस्थानी के कुछ कवियों ने भी राजस्थानी की मान्यता के लिए अपना अभियान आरंभ किया था मगर उनके इस अभियान से क्या हासिल हुआ किसी को मालूम नहीं है इसके विपक्ष वालों का तर्क है कि जब तक राजस्थानी का मानकीकरण नहीं होता इसे राज्य भाषा का दर्जा कैसे दिया जा सकता है?कुछ दिनों पहले की बात थी जब राजस्थान में इस बात को लेकर ही विवाद हो गया कि किसी अंग्ला विद्धवान ने किसी कवि को कुछ कह ही दिया था कि हो गई तूं-तूं मैं-मैं जो शायद किसी मतलब कि नहीं थी। मगर कभी किसी ने हमारी उस धरोहर की चिंता नहीं की जो बरसों से कूड़े के साथ फैक दी गई है अगर हम नए शीरे से इतिहास लिखते है तो किसके दम पर लिखेंगे उसी के दम पर जिसे हम ठुकरा चुके है।
एक उदाहरण है कविवर कन्हेया लाल जी सेठिया की 'पिथल और पाथल' जिसे कभी हमारे कोर्स से हटा दिया गया था और धीरे धीरे पुस्तकालयों ने भी रद्दी में फैक दिया ।
ऐसा नहीं है कि कोई उसको चाहने वाला नहीं है आज भी उसके कद्रदानों की कोई कमी नहीं है मगर कोई ये बताये तो सही की यह मिले कहाँ से? आज निसंदेह नेट बहुत बड़ा माध्यम है ज्ञान के संचरण का मगर यहाँ भी इसका कंगाल ही है आशा है ये कमी कोई शीघ्र पूरी कर देगा। कोई भी चीज एकदम नहीं बदल जाती है बदलने में वक्त लगता है हो सकता है कि रही राजस्थानी भी आने वाले समय में न रहे मगर फ़िर भी इससे कई गुना आशा इस बात कि है कि राजस्थानी के साथ साथ उनसभी कवियों और लेखकों पर भी काम होगा और हमारे इतिहास के साथ हम अपने महापुरुषों को भी पुनः मूल रूप में पेश करने में सफल होंगे ।

शुक्रवार, 6 जून 2008

महाराणा की भूमीं को प्रणाम

महाराणा प्रताप की धरती मेवाड़ से कुछ दूर,

इस नवाबों के शहर भोपाल से ही मेरा उस वीर भूमि को प्रणाम!

ये मेरा सौभाग्य है कि मेरा जन्म महाराणा प्रताप के जन्म स्थान कुम्भलगढ़ से महज साठ किलोमीटर पर है, जहाँ महाराणा प्रताप का राज्य रोहन हुआ था वह गोगुन्दा वह स्थान है जहाँ के कुछ इलाकों में मुझे एक एनजीओ के साथ काम करने का मौका मिला है. महाराणा प्रताप के पिता उदय सिंह की पहली राजधानी चित्तौड़गढ़ मेरे भोपाल आने के दौरान मिडवे की तरह पड़ता है और जिस शहर को अपनी पहली राजधानी को छोड़ने के बाद में महाराणा उदयसिंह ने बसाया था उसी उदयपुर शहर की गोद में मुझे अपने कोलेज के पांच साल गुजरने का मौका मिला जहाँ प्रताप ने हल्दीघाटी नामक स्थान पर अकबर की मानसिंह के नेतृत्व में आयीं सेना से युद्ध लड़ा था उस तीर्थ भूमीं के दर्शन का सौभाग्य मुझे अठारह बीस साल की उम्र में मिला जब में एक स्कूल ट्यूर में घूमने गया था वहीं महाराणा प्रताप के जीवन से विजय अभियान के लिए जाने जाने वाले दिवेर नामक स्थान पर मुझे ग्रेज्युएसन के आखिरी इयर में जाने का अवसर प्राप्त हुआ अब एक इच्छा ये है कि प्रताप के आखिरी दिनों की शरणस्थली चावंड देखने को जन चाहता हूँ उम्मीद है कि ये ख्वयिस जल्द ही पुरी होगी. तब शायद में उनको करीब से देख सकूँगा और उस जमीं को प्रणाम कर सकूं

माही एहडा पूत जण जेह्डा.........................

महाराणा प्रताप एक ऐसा नाम जिसके स्मरण मात्र से ही सारे दर्द दूर हो जाते है,
मन तेज़ से तरोताजा हो जाता है, और उत्साह चरम पर पहुँच जाता है। कभी कभार हमारे युवा ये उत्साह रचनात्मकता की बजाय तोड़फोड़ में ज्यादा लगाते है।
बस एक जरूरत है महाराणा प्रताप को पुनः समझने की और उसे अपने जीवन में उतरने की क्योंकि उन्होंने अपनी शान मैं कभी बादशाह अकबर की तरह अकबर नामा नहीं लिखवाया था और नहीं अपने पीछे अपने त्याग को याद रखवाने के लिए कोई ताज जैसा स्मारक बनवाया था।
उन्होंने जीवन भर जंगलों की ख़ाक छानी फ़िर भी दिल्ली की गुलामी स्वीकार नहीं की ये आसन काम नहीं था मगर उन्होंने इस नामुमकिन को मुमकिन बनाया और दूसरो को आत्मसम्मान के लिए जीने की प्रेरणा दी। वह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी तब थी।

हिंदुआ सूरज कहे जाने वाले महाराणा प्रताप ने अकबर के खिलाफ हथियार उठाये थे इसका ये मतलब कतई नहीं है की वे हिंसा को श्रेष्ट मानते थे। वे तो बस अपनी जन्मभूमि की रक्षा के लिए अपने विरासत में मिली परम्परा को निभा रहे थे।
उनके जीवन का हर पल हमारे लिए आदर्श हैं मगर सोचना ये हमको है कि क्या हम अपने जीवन में राणा प्रताप की तरह जीते है अपने दायित्वों को उतनी ही गंभीरता से निभाते है?
शायद इसका जवाब नहीं ही होगा।
तो बस दोस्तों आज ये प्राण हो ही जाए की कम से कम एक कोशिश तो की जा सकती है
महाराणा प्रताप की बताई राह पर कदम रखने की कोशिश करने की ....................... ।
आशा है कुछ भगत सिंह जैसे लोग के पद चिह्न जरूर दिखेंगे, जो मृत्यु की साधना में कहते थे -
इतिहास में महाराणा प्रताप ने मरने की साधना की थी एक तरफ़ थी दिल्ली के महा प्रतापी सम्राट अकबर की महाशक्ति जिसके साथ वे भी थे जिनको होना चाहिए था और वे भी थे जिनको नहीं होना चाहिए था बुद्धि कहती थी टक्कर असंभव है, गणित कहता था विजय असंभव है समज्दर कहते थे रुक जाओ, रिश्तेदार कहते थे झुक जाओ राणा प्रताप न बुद्धि को ग़लत मानते थे और न ही गणित के विरिधि थे, न समझदारों का प्रतिकार करते थे और न ही रिश्तेदारों को इनकार पर वे कहते थे - " जब तक मनुष्य की तरह सम्मान के साथ जीना असंभव हो,तब मनुष्य की तरह सम्मान से मर तो सकते है. बिना कहे शायद उनके मन में था कि मनुष्य की तरह से मरकर हम आने वाली पीढियों के लिए जीवन द्वार खुला छोडें, कुत्तों की तरह पूंछ हिलाकर जीते हुए बंद न कर जाएं.
-युग पुरूष भगत सिंह

सोमवार, 2 जून 2008

आरक्षण किसी का जन्मसिद्ध अधिकर है?

क्या हमारे नेताजी वैसे भी बोलने को लेकर काफी बडबोले मने जाते है फ़िर चाहे पाक में जाकर गला फाड़ने वाले लालकृष्ण आडवानी हो या फ़िर प्रवीण भाई तोगडिया हो सब एक से है। नेता ऐसे बोले जाते है और फंस जाते है जैसे नायक फ़िल्म में अमरीश पुरी बोलते है और फंस जाते है। मगर ये बात सच है कि नेता झूठ बोलने के मामले में बड़े माहीर होते है मगर ये जुबान है न इसमे कोई हड्डी तो होती ही नही है। इसी वजह से फिसल जाती है और लेने के देने पड़ जाते है।

सतयुग में एक परिकल्पना थी कि चोबिस घंटों में एकपल के लिए साधू लोगों की जुबान पर सरस्वती निवास करती थी और अनके द्वारा कहा गया सच हो जाता था और उनका दिया गया श्राप इसी वजह से कभी खाली नहीं जाता था । फ़िर वह मंथरा हो या फ़िर परम प्रतापी परशुराम का सूर्यपुत्र कर्ण या फ़िर हरिमुख से गुस्सा होकर देवर्षि नारद का विष्णु को दिया गया श्राप हो सबकुछ सच होने में तनिक भी देर नहीं लगी।

कल युग में वक्त बदल गया है अब इंसान बहूत सोच-समझ कर बोलने लगा है इसके मायने यह है इन्सान मन से कम दिमाग से ज्यादा बोलता है। इसी वजह से सच कम झूठ ज्यादा बोलता है फ़िर भी भगवान की माया देखो सच आ ही जाता है ,इस जुबान पर।

पिछले दिनों प्रदेश के सहकारिता और कृषि मंत्री गोपाल जी ने तैश में आकर मुख्यमंत्री से ये कह दिया कि ब्राहमणों को आरक्षण नहीं चाहेये, आरक्षण तो भिखारियों को चाहिए और जिनको गत पचास सालों से आरक्षण मिल रहा है उनकी दशा भी पहले जैसी ही है।

इसके बाद क्या होना था ये तो हम लोकतंत्र के इतिहास से देखते आ रहे है। वही तमाशा जिसे हमारे बाप दादा भी देखे थे, हो गई मारा-मारी,प्रदेश की ठंडी राजनीती की भट्टी में घी नहीं केरोसिन डाल दिया भार्गव ने।

नतीजतन सब और हड़कंप मच गया वे भार्गव जिनको कल तक कम लोग जानते थे सभी अखबारों कि फस्ट लीड बन गए। हमारे लोकतंत्र के नेताओ ने तो अपना जो सिद्धांत बना रखा है।

इस प्रकार लगता है इसे तुलसी और बिहारी के दो अलग अलग दोहो को मिला कर समझा जा सकता है

ऐसी बाणी बोलिए कि मन का आपा खोय -तुलसी

देखन में छोटे लगे घाव करे गंभीर- बिहारी

इसी नियम को अपनी सफलता की लकीर मान कर समय- समय पर कई गर्म लोगों ने अपना लोहा मनवाना चाहा है, फिलहाल वाणी का वाकयुद्ध जारी है मगर यहाँ बात जो समझने वाली है वो यह है कि क्या आरक्षण किसी भारतीय का जन्म सिद्ध अधिकार है क्या? ये हमारे मूल अधिकारों में शामिल है क्या ? शायद इसका जवाब कोई देने का इच्छुक नहीं होगा क्योंकि जिनको मिल रहा है वो इसे खोने के ख्वाब से भी डरते है। वहीं जिनको नहीं मिल रहा है वे इसे ग़लत और अन्याय कह कह हार चुके है, उनको अब इस पर बहस का कोई फायदा नजर नहीं आता है। उन्होंने इसे अपना भाग्य ही लिया है और किस्मत का रोना और सरकार को कोसना छोड़ दिया है।

अब ये बात अलग है कि इसे आप क्या संज्ञा देंगे हक़ या फ़िर भीख बस देखने का नजरिया है सिक्का एक ही है ।