क्या हमारे नेताजी वैसे भी बोलने को लेकर काफी बडबोले मने जाते है फ़िर चाहे पाक में जाकर गला फाड़ने वाले लालकृष्ण आडवानी हो या फ़िर प्रवीण भाई तोगडिया हो सब एक से है। नेता ऐसे बोले जाते है और फंस जाते है जैसे नायक फ़िल्म में अमरीश पुरी बोलते है और फंस जाते है। मगर ये बात सच है कि नेता झूठ बोलने के मामले में बड़े माहीर होते है मगर ये जुबान है न इसमे कोई हड्डी तो होती ही नही है। इसी वजह से फिसल जाती है और लेने के देने पड़ जाते है।
सतयुग में एक परिकल्पना थी कि चोबिस घंटों में एकपल के लिए साधू लोगों की जुबान पर सरस्वती निवास करती थी और अनके द्वारा कहा गया सच हो जाता था और उनका दिया गया श्राप इसी वजह से कभी खाली नहीं जाता था । फ़िर वह मंथरा हो या फ़िर परम प्रतापी परशुराम का सूर्यपुत्र कर्ण या फ़िर हरिमुख से गुस्सा होकर देवर्षि नारद का विष्णु को दिया गया श्राप हो सबकुछ सच होने में तनिक भी देर नहीं लगी।
कल युग में वक्त बदल गया है अब इंसान बहूत सोच-समझ कर बोलने लगा है इसके मायने यह है इन्सान मन से कम दिमाग से ज्यादा बोलता है। इसी वजह से सच कम झूठ ज्यादा बोलता है फ़िर भी भगवान की माया देखो सच आ ही जाता है ,इस जुबान पर।
पिछले दिनों प्रदेश के सहकारिता और कृषि मंत्री गोपाल जी ने तैश में आकर मुख्यमंत्री से ये कह दिया कि ब्राहमणों को आरक्षण नहीं चाहेये, आरक्षण तो भिखारियों को चाहिए और जिनको गत पचास सालों से आरक्षण मिल रहा है उनकी दशा भी पहले जैसी ही है।
इसके बाद क्या होना था ये तो हम लोकतंत्र के इतिहास से देखते आ रहे है। वही तमाशा जिसे हमारे बाप दादा भी देखे थे, हो गई मारा-मारी,प्रदेश की ठंडी राजनीती की भट्टी में घी नहीं केरोसिन डाल दिया भार्गव ने।
नतीजतन सब और हड़कंप मच गया वे भार्गव जिनको कल तक कम लोग जानते थे सभी अखबारों कि फस्ट लीड बन गए। हमारे लोकतंत्र के नेताओ ने तो अपना जो सिद्धांत बना रखा है।
इस प्रकार लगता है इसे तुलसी और बिहारी के दो अलग अलग दोहो को मिला कर समझा जा सकता है
ऐसी बाणी बोलिए कि मन का आपा खोय -तुलसी
देखन में छोटे लगे घाव करे गंभीर- बिहारी
इसी नियम को अपनी सफलता की लकीर मान कर समय- समय पर कई गर्म लोगों ने अपना लोहा मनवाना चाहा है, फिलहाल वाणी का वाकयुद्ध जारी है मगर यहाँ बात जो समझने वाली है वो यह है कि क्या आरक्षण किसी भारतीय का जन्म सिद्ध अधिकार है क्या? ये हमारे मूल अधिकारों में शामिल है क्या ? शायद इसका जवाब कोई देने का इच्छुक नहीं होगा क्योंकि जिनको मिल रहा है वो इसे खोने के ख्वाब से भी डरते है। वहीं जिनको नहीं मिल रहा है वे इसे ग़लत और अन्याय कह कह हार चुके है, उनको अब इस पर बहस का कोई फायदा नजर नहीं आता है। उन्होंने इसे अपना भाग्य ही लिया है और किस्मत का रोना और सरकार को कोसना छोड़ दिया है।
अब ये बात अलग है कि इसे आप क्या संज्ञा देंगे हक़ या फ़िर भीख बस देखने का नजरिया है सिक्का एक ही है ।
1 टिप्पणी:
सब वोटों की राजनिति है. बहुत अफसोसजनक.
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