इन दिनों मौसम के हाल बड़े बुरे है। भारत से लगाकर पाकिस्तान सभी जगह मारामारी मची हुयी है। लाहौर से लगाकर दिल्ली और कश्मीर तक सब जगहों पर बरसात तो हो रही है लेकिन पानी की बजाय किसी और चीज की ?
और उधर सरहद पार के जिन्ना के दिन भी अमन से नहीं कट रहे है . पडौसी की क्या बात करीं अपने घर को ही ले लो तो अहमदाबाद से लगाकर सुरह सभी जगह रह रह कर जख्म मिलते जा रहे है और तो और इन सब की परेशानी ख़त्म ही नहीं हुयी थी कि कशमीर में अमरनाथ स्रांयन बोर्ड को जमीन देकर नया शिगूफा शुरू कर दिया इसके पहले नोट के बदले वोट हिट स्टोरी बना हुआ था
इसी हीत स्टोरी के क्लायमेक्स से एक नई कहानी का जन्मा हुआ जो आगे चल कर अमरनाथ के नाम पर कशमीर में परेशानी का सबब बनी.
मनमोहन सरकार ने अपनी कुर्सी बचने के लिए जो किया उस महान घटना का एक हिस्सा यह भी था कि कशमीर के राजनीती के पहरेदारों ने इसको प्रोत्साहन दिया था और समर्थन दिया. मगर किस कीमत पर ? क्या उसी कीमत पर जो अब हमारे सामने कश्मीर में दिखाई दे रही है?
मनमोहन सरकर को समर्थन देने के बाद कश्मीर में अमरनाथ मुद्दे ने अपना रंग दिखाना शुरू किया और देखते ही देखते सारा का सारा कश्मीर जलने लगा कई लोग मारे गए शान्ति के लिए सेना का सहारा लिए गया तो सेना की कार्यवाही का नतीजा उनके मुखिया को भुगतना पड़ा.
जब तक हालात पुरे नहीं बिगड़ गए और ये जमीन का मसला ज़मीर का नहीं बन गया तब तक वहां की सारी पार्टियाँ इस आग में भाड़ झोंकते रहे. और जा ये आग वहां की जनता में कौम और ज़मीर तक नहीं पहुची सब लोग लगे रहे इस आग को हवा देने में .
केन्द्र सरकार शुरू से लगाकर इस मुद्दे से दूर रही है ऐसा लगता है कि मानो न्यूक्लियर डील के मामले में मनमोहन सरकार इतनी ज्यादा खो गई कि उसे इस मुद्दे की घम्भिरता जरा भी समझ में नहीं आई. इस सम्बन्ध में या तो सरकार मुगालते में है कि यह ज्यादा बड़ी समस्या नहीं है या फ़िर इस मामले में मनमोहन सिंह गांधीगिरी दिखा रहे है.
इसके बीच बीच सुरक्षा एजेंसियां ये कहती रही है कि इससे आन्तरिक सुरक्षा को खतरा बढ़ रहा है मगर उनकी सुने कौन? अल्गाव्वावी इन दिनों अपने चरम पर है उनके एक नेता सैय्यद अली शाह गिलानी ने जम्मू कश्मीर को पाक में मिलाने की जरूरत तक बता दी. पीडीपी के हवाले से महबूबा मुफ्ती भी कहे तो कुछ नहीं है मगर मुज़फ्फराबाद मार्च का समर्थन करते है और तो और पुलिश फायरिंग में मरे गए हुर्रियत के एक नेता के जनाजे में हिंदुस्तान में पकिस्तान के जयकारे लगते है और .......................
इस नज़ारे को सारा देश कातर नजरों से देखता रहता है . आख़िर हम कर भी क्या सकते है हम तो एक बार चुन कर भेजते है चाहे पॉँच साल तक रहे या चले जायें. परमाणु समझौता करें या फ़िर परमाणु परीक्षण हमें कौन पूंछता है? आजाद देश में भी हमसे पूछता कौन है न नेहरू और न ही मन मोहन. खेर नेहरू के समत पर कोई तो सरदार पटेल थे जिन्होंने पूरे देश को एक सूत्र में बंधे रखा मगर अब तो दूर दूर तक कोई नज़र नहीं आता है और इसे में अगर कोई बेचारा 'सरदार' की तर्ज़ पर बात करें तो लालू जैसे कई नेता है जो उसे "असरदार" होने ही नहीं देते है.
और उधर सरहद पार के जिन्ना के दिन भी अमन से नहीं कट रहे है . पडौसी की क्या बात करीं अपने घर को ही ले लो तो अहमदाबाद से लगाकर सुरह सभी जगह रह रह कर जख्म मिलते जा रहे है और तो और इन सब की परेशानी ख़त्म ही नहीं हुयी थी कि कशमीर में अमरनाथ स्रांयन बोर्ड को जमीन देकर नया शिगूफा शुरू कर दिया इसके पहले नोट के बदले वोट हिट स्टोरी बना हुआ था
इसी हीत स्टोरी के क्लायमेक्स से एक नई कहानी का जन्मा हुआ जो आगे चल कर अमरनाथ के नाम पर कशमीर में परेशानी का सबब बनी.
मनमोहन सरकार ने अपनी कुर्सी बचने के लिए जो किया उस महान घटना का एक हिस्सा यह भी था कि कशमीर के राजनीती के पहरेदारों ने इसको प्रोत्साहन दिया था और समर्थन दिया. मगर किस कीमत पर ? क्या उसी कीमत पर जो अब हमारे सामने कश्मीर में दिखाई दे रही है?
मनमोहन सरकर को समर्थन देने के बाद कश्मीर में अमरनाथ मुद्दे ने अपना रंग दिखाना शुरू किया और देखते ही देखते सारा का सारा कश्मीर जलने लगा कई लोग मारे गए शान्ति के लिए सेना का सहारा लिए गया तो सेना की कार्यवाही का नतीजा उनके मुखिया को भुगतना पड़ा.
जब तक हालात पुरे नहीं बिगड़ गए और ये जमीन का मसला ज़मीर का नहीं बन गया तब तक वहां की सारी पार्टियाँ इस आग में भाड़ झोंकते रहे. और जा ये आग वहां की जनता में कौम और ज़मीर तक नहीं पहुची सब लोग लगे रहे इस आग को हवा देने में .
केन्द्र सरकार शुरू से लगाकर इस मुद्दे से दूर रही है ऐसा लगता है कि मानो न्यूक्लियर डील के मामले में मनमोहन सरकार इतनी ज्यादा खो गई कि उसे इस मुद्दे की घम्भिरता जरा भी समझ में नहीं आई. इस सम्बन्ध में या तो सरकार मुगालते में है कि यह ज्यादा बड़ी समस्या नहीं है या फ़िर इस मामले में मनमोहन सिंह गांधीगिरी दिखा रहे है.
इसके बीच बीच सुरक्षा एजेंसियां ये कहती रही है कि इससे आन्तरिक सुरक्षा को खतरा बढ़ रहा है मगर उनकी सुने कौन? अल्गाव्वावी इन दिनों अपने चरम पर है उनके एक नेता सैय्यद अली शाह गिलानी ने जम्मू कश्मीर को पाक में मिलाने की जरूरत तक बता दी. पीडीपी के हवाले से महबूबा मुफ्ती भी कहे तो कुछ नहीं है मगर मुज़फ्फराबाद मार्च का समर्थन करते है और तो और पुलिश फायरिंग में मरे गए हुर्रियत के एक नेता के जनाजे में हिंदुस्तान में पकिस्तान के जयकारे लगते है और .......................
इस नज़ारे को सारा देश कातर नजरों से देखता रहता है . आख़िर हम कर भी क्या सकते है हम तो एक बार चुन कर भेजते है चाहे पॉँच साल तक रहे या चले जायें. परमाणु समझौता करें या फ़िर परमाणु परीक्षण हमें कौन पूंछता है? आजाद देश में भी हमसे पूछता कौन है न नेहरू और न ही मन मोहन. खेर नेहरू के समत पर कोई तो सरदार पटेल थे जिन्होंने पूरे देश को एक सूत्र में बंधे रखा मगर अब तो दूर दूर तक कोई नज़र नहीं आता है और इसे में अगर कोई बेचारा 'सरदार' की तर्ज़ पर बात करें तो लालू जैसे कई नेता है जो उसे "असरदार" होने ही नहीं देते है.
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