पिछले दिनों पढने को मिला की वयोवृद्ध लेखक अमरकांत बीमार चल रहे हैं। अपने समय में किताबों की बिक्री के बादशाह रहे लेखक अमरकांत जी के लिए इन दिनों परिवार का गुजारा करना भी मुश्किल हो गया है बीमारी ने उन्हें बिल्कुल इतना तोड़ दिया है कि वह अपने पुरस्कार तक बेचने को तैयार हैं। उनकी इस खराब हालत की एक वजह प्रकाशक भी मन जा रहा है, जिन्होंने उनकी रायल्टीनही दी है
भारतीय और खासकर हिंदी लेखकों की हालत पर हिंदी की प्रसिद्ध रचनाकार चित्रा मुद्गल का यह कहना है कि साहित्य एवं कला-संस्कृति ही एक देश की पहचान हैं। लेकिन आज जब ऐसी बातें सामने आती हैं जो भयानक लगती है। साहित्य और सांस्कृतिक उत्थान ही देश की अस्मिता की पहचान है। इसीलिए आजादी के बाद साहित्य कला परिषद, साहित्य अकादमी और संगीत नाटक अकादमी की स्थापना की बात उठी। यह बात भी उठी कि अलग-अलग प्रदेशों की अपनी अलग भाषा/साहित्य अकादमी होनी चाहिए। अकादमियां बनीं भी, लेकिन उनके प्रचार-प्रसार पर ध्यान नहीं दिया गया। आज भी
प्रेमचंद स्थापित नहीं हो सके। भारतीय भाषाओं की रचनाओं को बाजार नहीं मिला, तो लेखकों को रायल्टी। केंद्रीय साहित्य अकादमी ने भी उतनी लगन से काम नहीं किया कि लेखकों का 'ग्लैमर' बन पाता।
हकीकत यह है कि सरकार की ओर से प्रकाशकों को आज भी पूरा सहयोग मिल रहा है। विडंबना है कि प्रकाशक अपनी किताबें लाइब्रेरी में लगाने के लिए नौकरशाहों को तो पैसा खिलाते हैं, मगर लेखकों को नहीं देते। उन्हें जनता के बीच किताबों के प्रचार-प्रसार पर भी ध्यान देना चाहिए। इसीलिए आज अमरकांत की स्थिति इतनी दयनीय है। करें भी क्या.. लेखकों को पेंशन तो मिलती नहीं। गिने-चुने प्रकाशक ही ईमानदारी से रायल्टी देते हैं। प्रेमचंद ने कहा था, 'लेखक राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है और उसे रास्ता दिखाती है।' कहने का अर्थ यह कि लेखक राष्ट्र की अस्मिता का प्रतीक है। लिहाजा, सरकार को लेखकों के लिए पेंशन ही नहीं, चिकित्सा और रहन-सहन की व्यवस्था भी करनी चाहिए।
यह तो था भाई उनका मत मगर मेरा मानना है कि क्यो आज भी लेखक का नाम सुनते ही हमारे जेहन मे किसी झोला छाप व्यक्ति की तस्वीर उभर आती है ? क्यों कोई आदमी अपने बच्चे को बड़ा लेखक नही बनाना चाहता है ?
इस सवाल का जवाब मेरे पास तो यही है के हमारे लेखक बदलते वक्त के साथ अपने आप को बदल नही पाए। सच मे जिन लोगों ने अपने को वक्त के साथ मिला लिया वो जमने के साथ आगे बढ़ता गया। जो रुक गया सो पीछे ही रह गया। अब यह मत कहना की हम क्या कर सकते है।
मेरा मत है
कुछ तुम बदलो कुछ हम बदलते है
फ़िर कल देखेंगे कैसे वक्त नही बदलता है
रविवार, 27 अप्रैल 2008
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