गुरुवार, 15 मई 2008

इसे कहते है ...................

भोपाल
आज से कुछ सालों पहले जब मैं सेकंडरी में पढ़ा था की राजस्थान में कई स्थानों के विस्थापितों और शरणार्थियों को शरण दी गई है जो यहाँ की जनसंख्या बड़ा देते है । तब मुझे गर्व होता था किहम अपने पुरखों रंथाम्भोर के हमीर कि भांति शरण दे रहे है । मगर आब जब उनका ही नाम आता है कई विस्फोटों में तो अपने से ही ....................

2 टिप्‍पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

तो क्या इस लिए पुरखों की परंपरा और संस्कार त्याग दिए जाएँ?

बेनामी ने कहा…

nahi sar mera khna ye hai ki ab vakt badla hai ye ho jay ki ghar mein sanp ko palna aur dant bhi nahi todna kya kahenge aap